खामोश हूँ
रिश्तों के तराज़ू में मेरा ही पलड़ा हर बार क्यूँ हलका रह जाता है
जाने क्या कमी रह जाती है
लाख कोशिशों के बावजूद ऊँचा ही रह जाता है
कहते हैं झुकी हुई डाली पे फूल खिलते हैं
गलत! झुक झुक के इंसान खुद ही टूट जाता है
सब के साथ एक जैसा इंसाफ़ क्यों नहीं होता
कोई सब कुछ ले जाता है तो कोई खाली ही रह जाता है
' एक चुप सौ सुख ' यह भी झूठ ही निकला
बोलने वाला तो जीत जाता है और खामोश हार जाता है
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