कसूर किस का था?


सोचा था दिल हम कभी किसी का ना दुखाएंगे,
मगर दूसरों की सोच को भला कैसे बदल पाएंगे,
जिन्हे औरों के दुखो को समझना नहीं आता,
उन्हें अपने दिल की बात कैसे बताएंगे।

हर तरफ दोस्त हैं,फिर भी दिल उदास है,
उनकी बस एक सोच ही मेरे साथ है,
जब दोस्तों के बीच भी तन्हा हूं मैं,
तो शायद सचमुच ही अकेला हूं मैं।

रहते हैं हमारे दिल में आज भी वह अपने बन कर,
आंखों में बसते हैं आज भी वह सपने बन कर,
उन अपनों के लिए हम जीते मरते हैं,
उन सपनों के लिए हम सब कुछ करते है
पर क्या हम भी उनके दिल में रहते हैं?
क्या हम भी उनकी आंखों में अश्क बन बहते हैं?

विश्वास न सही  उम्मीद तो है,
उनकी धड़कनों में हम कहीं तो हैं,
यह दुनिया उम्मीद से ही चलती है,
उनका होना तो महज़ एक धोखा है,तन्हाई ही हर कदम साथ चलती है।

आज जिंदगी की किताब को जब मैंने खोला,
तो धड़कता हुआ दिल तड़प कर बोला,
ना दोबारा छेड़ मेरे ज़ख्मो को,
फिर से ना पलट उन पन्नों को।

बड़ी मुश्किल से इन ज़ख्मो के साथ जीने की आदत डाली है,
ना चाहते हुए भी रो रो के हंसने की आदत डाली है।
कसूर किस का था आज यह सवाल समझ आया है,
अगर हम नहीं अपने तो हर कोई यहाँ पराया है।

यही दस्तूर है अगर दुनिया का,
तो फिर कसूर नहीं है दुनिया का,
हमें ही देर लगी समझने में,
जीवन की किताब पढने में।
क्यों दिया हमने हक उन्हें के जब चाहें वो खंजर चलाएँ,
क्यों दिया हमने हक उन्हें के जब चाहें वो हमें रुलाएँ।
इक खौफ तले जीने की सज़ा खुद को देकर,
उन्हें अपने से बुलंद दर्जा देकर,
अगर हम तड़पे तो कसूर किस का था?
बेशक हमारा अपना था,बेशक हमारा अपना था।

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