किरचियाँ अरमानों की
किरचियाँ अरमानों की समेटते समेटते ज़िंदगी की शाम हो गई
अरमान तो कब के टूट गए अब तो किरचियाँ भी बेनाम हो गईं
आईना टूटने पर आवाज़ तो होती है
ख़्वाहिशें मरते मरते बेआवाज़ हो गईं
अब तो आदत डाल ले ऐ दिल
यह रस्म तो सरेआम हो गई
ना परवाह है किसी को तेरे टूटने की
तेरी हर खुशी बेदाम हो गई
क्यूँ हर बार यूँही किसी से उम्मीद रखना
बरसों बीत गए, अब तो यह बेपरवाही आम हो गई
सब की किस्मत एक जैसी नहीं होती
अपने हिस्से की कद्र गुमनाम हो गई
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