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खामोश हूँ

रिश्तों के तराज़ू में मेरा ही पलड़ा हर बार क्यूँ हलका रह जाता है  जाने क्या कमी रह जाती है  लाख कोशिशों के बावजूद ऊँचा ही रह जाता है  कहते हैं झुकी हुई डाली पे फूल खिलते हैं  गलत! झुक झुक के इंसान खुद ही टूट जाता है  सब के साथ एक जैसा इंसाफ़  क्यों नहीं होता  कोई सब कुछ ले जाता है तो कोई खाली ही रह जाता है  ' एक चुप सौ सुख ' यह भी झूठ ही निकला  बोलने वाला तो जीत जाता है और खामोश हार जाता है 

किरचियाँ अरमानों की

किरचियाँ अरमानों की समेटते समेटते  ज़िंदगी की शाम हो गई  अरमान तो कब के टूट गए अब तो किरचियाँ भी बेनाम हो गईं  आईना टूटने पर आवाज़ तो होती है   ख़्वाहिशें मरते मरते बेआवाज़ हो गईं अब तो आदत डाल ले ऐ दिल  यह रस्म तो सरेआम हो गई  ना परवाह है किसी को तेरे टूटने की  तेरी हर खुशी बेदाम हो गई  क्यूँ हर बार यूँही किसी से उम्मीद रखना बरसों बीत गए, अब तो यह बेपरवाही आम हो गई  सब की किस्मत एक जैसी नहीं होती  अपने हिस्से की कद्र गुमनाम हो गई 

मौत से दो शब्द

ऐ मौत, आज खत्म हुआ तेरा इंतज़ार  और मेरी माँ का भी  तू खड़ी थी सिरहाने मेरे कि कब रुकें मेरी साँसें  और तू  बिठाए अपनी गोद में मुझे  उधर माँ को था इंतज़ार कि बढ़ें मेरी साँसें  और लौटूँ घर तो गोद में बिठाए मुझे  आज दोनों का इंतज़ार खत्म  तेरा घर तो कभी भरा नहीं  पर मेरी माँ का आँगन आज सूना हो गया  ज़िंदगी हार गई मेरी माँ  की तरह  और तू जीत गई सदा की तरह  अगर है तुझमें हिम्मत तो जा मेरी माँ को दिलासा तो दे आ कोई नहीं है उसके पास  नाते रिश्तेदार कहें कि तेरा बेटा कोरोना से है मरा कम से कम मेरी पत्नी की हाथ की चूड़ियाँ तो तोड़ आ उसके माथे का सिंदूर  तो मिटा जा  मेरी माँ में इतनी हिम्मत नहीं है  और पास कोई रिश्तेदार भी तो नहीं है  दो शब्द मेरी पत्नी को भी बोल दे  कि अब वो अपनी गोद भरने की आस न करे   आज उसका भी इंतज़ार  खत्म  मेरी माँ और मेरी पत्नी  दोनों तन्हा दोनों की गोद सूनी उम्मीदें टूटी हैं दोनों की ना कोई आसरा ना कोई सहारा  कैसे करेंगी अब गुज़ारा पर तुझे क्या  तू तो जीत जाती है हर बार  तुझे तो होगा और माँओं के बेटों का इंतज़ार, इंतज़ार  कब खत्म होगा तेरा तांडव  कब रूकेगा तेरा कहर बस

माँ का कर्ज

मांँ, अपने खून से सींचकर जिसने बेटे को बड़ा किया  आज अकेली खड़ी है एक रास्ते पर  सोच में डूबी कभी आगे कभी पीछे मुड़ मुड़ के  देखती है  शायद है किसी का इंतजार  काश!  कोई आए और उसे उसके घर ले जाए  वो घर जिसमें वो कभी बहू बनकर आई थी  पत्नी बन जिस घर को उसने संवारा  पति ने कहा तू तो इस घर की रानी है  आज उस रानी का राज छिन रहा है  वो राज जहाँ उसने अपने बेटे को राजकुमार की तरह पाला हर घड़ी उस पे वारी वारी जाती थी  उसकी हर  ख़्वाहिश  पे  कुर्बान हो जाती थी  आज उम्मीदों का वो आँगन  छूट रहा है  कोई पुकारने वाला नहीं  उस घर को नयी रानी मिल गई है  और आज माँ रास्ते पर खड़ी है  वो रास्ता वापस नहीं जाता उसके घर  जाता है तो सिर्फ एक नए घर वृद्ध आश्रम की तरफ़  जहाँ अपने नहीं पर उसे अपना लेंगे  जहाँ रहते हुए हर पल वो सोचेगी क्या खोया क्या पाया माँ की ममता का कर्ज चुकाना मुश्किल होता है  ऐसा सुना था पर इसके विपरीत पाया जिस बेटे की आँख में एक आँसू देखकर तड़प उठती थी माँ उसी बेटे ने माँ का दामन आँसुओं से भिगो डाला  क्या यही है दस्तूर कैसे बदल जाते हैं रिश्ते  कैसे खून सफ़ेद हो जाता है  रूह नहीं कांपती उनक

कसूर किस का था?

सोचा था दिल हम कभी किसी का ना दुखाएंगे, मगर दूसरों की सोच को भला कैसे बदल पाएंगे, जिन्हे औरों के दुखो को समझना नहीं आता, उन्हें अपने दिल की बात कैसे बताएंगे। हर तरफ दोस्त हैं,फिर भी दिल उदास है, उनकी बस एक सोच ही मेरे साथ है, जब दोस्तों के बीच भी तन्हा हूं मैं, तो शायद सचमुच ही अकेला हूं मैं। रहते हैं हमारे दिल में आज भी वह अपने बन कर, आंखों में बसते हैं आज भी वह सपने बन कर, उन अपनों के लिए हम जीते मरते हैं, उन सपनों के लिए हम सब कुछ करते है पर क्या हम भी उनके दिल में रहते हैं? क्या हम भी उनकी आंखों में अश्क बन बहते हैं? विश्वास न सही  उम्मीद तो है, उनकी धड़कनों में हम कहीं तो हैं, यह दुनिया उम्मीद से ही चलती है, उनका होना तो महज़ एक धोखा है,तन्हाई ही हर कदम साथ चलती है। आज जिंदगी की किताब को जब मैंने खोला, तो धड़कता हुआ दिल तड़प कर बोला, ना दोबारा छेड़ मेरे ज़ख्मो को, फिर से ना पलट उन पन्नों को। बड़ी मुश्किल से इन ज़ख्मो के साथ जीने की आदत डाली है, ना चाहते हुए भी रो रो के हंसने की आदत डाली है। कसूर किस का था आज यह सवाल समझ आया है, अगर हम नहीं अपने तो हर कोई यहाँ पराया है। यही दस्तूर

दास्ता-ऐ -ज़िन्दगी

ऐ दोस्त्,क्या तूने ज़िन्दगी को देखा है  मुझे तो लगता है कि यह एक अजूबा है  हसाती है ज़िन्दगी तो रुलती भी है कभी, आन्सुओ के साथ बह जाती है कभी, उम्र गुज़र जाती है इस्को समझ्ने में, मगर अपने पीछे हर दम भगाती है ज़िन्दगी| जब भी एक खुशी दरवाज़ा खट्खटाती है, चुप्के से गम को भी बुलाती है ज़िन्दगी, जिस्को अपना सम्झो वही दगा दे जाता है, तब औरो से क्या खुद से भी यकीन टूट जाता है| मैने दुनिया को बदलते देखा है, खुद को बदलने मे गुज़र जाएगी ज़िन्दगी||